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#Bazaar a poem on weekly market.

इन शहरो में चलते चलते, लग  जाते बाजार  है।  खरीद बेच की होड़ से ज्यादा , यहाँ दिलो का प्यार है।  बीच बाजार रंभाती कामधेनु , ले चल साथ ग्वालाएँ।  अपना सामान बचते उनसे , दिख जाते बच्चे और वृद्धाएँ।  दो वक़्त की रोटी खातिर , कितना कष्ट उठाते है।  इसी मेहनत के बलबूते पर , अपना घर बार चलाते है।  कहीं बालक पकडे आँचल , कहीं चाचाजी पकडे थैलियां।  पीछे चल अपने माँ ,पत्नीके , नापते है बाजार की गलियां।  महिलाएं करती मोल भाव , हल करती प्रश्न बड़े-बड़े।  करती बेहतर सैदेबाज़ी, ताकि जेब पर न बोझ पड़े।  राम बेचता सेवई ईद की , रहीम दिए बेच दिख जाता है।  जाती धर्म भेद भूलकर , समरसता का मंत्र सिखाता है।  ऑनलाइन का बढ़ता कहर , रोज़गार खा रहा है।  धुंधलाता यह दृष्ट प्यारा , सिसकता जा रहा है।  By:Harshvardhan kabra. Hope you all will like this poem,please share if you like and yes don't forget to give your precious suggestions and feedback. Also,pl...